"सपा की हार के साथ क्यों हुईं भाजपा की सीटें भी कम "

"सपा की हार के साथ क्यों हुईं भाजपा की सीटें भी कम "

सपा की हार के साथ क्यों हुईं भाजपा की सीटें भी कम

"सपा की हार के साथ क्यों हुईं भाजपा की सीटें भी कम "

विजय कुमार निगम
होली का पर्व भी निकल गया किन्तु उत्तर प्रदेश भाजपा द्वारा विधान मंडल दल का अपना नेता  अभी तक नहीं चुना गया है लेकिन यह सर्वविदित है कि योगी आदित्यनाथ ही उत्तर प्रदेश के दुबारा मुख्यमंत्री होगें। मंगलवार को शपथ ग्रहण कार्यक्रम हो भी सकता है या फिर विधायकों के शपथ लेने के बाद कोई और तिथि निर्धारित हो सकती है क्योंकि विधान सभा का कार्यकाल अभी 14 मई 2022 तक है। वर्ष 2017 में योगी ने 19 मार्च को शपथ ली थी। इस बार संभवतः 25 मार्च को शपथ ग्रहण की अपुष्ट सूचना मिलने लगी है।
फिलहाल योगी के दुबारा मुख्यमंत्री बनने को लेकर शक उनको भी नहीं है जो पिछले दो वर्षों से यह अफवाह लगातार उड़ा रहे थे कि योगी जी जाने वाले हैं, शीर्ष नेतृत्व उन्हें पसंद नहीं कर रहा है, विधायक और मंत्री सभी नाराज़ हैं, ठाकुरवाद चल रहा है, ब्राह्मण दुखी हैं..भाजपा की सरकार दुबारा नहीं आयेगी, बहुमत नहीं मिलेगा, शायद मायावती के समर्थन से ही सरकार बन पाए…और अगर भाजपा सरकार बनती भी है तो योगी कत्तई भी मुख्यमंत्री नहीं होगें, मोदी ने वायदा किया है तो क्या, असम में मुख्यमंत्री बदल दिया, यही तो अवसर है योगी से छुटकारा पाने का, अमित शाह योगी को अब और बर्दाश्त नहीं करेंगे… आदि आदि। अब चुनाव परिणाम आने के बाद सबकी बोलती बंद है, सारा कोहरा छंट चुका है। बिना किसी के स्पष्टीकरण के ही सारे सवालों के जवाब लोगों ने खुद ही स्वाध्याय द्वारा ढूंढ लिए हैं।

मेरा सवाल यह है कि इतनी बड़ी जीत जो भाजपा को मिली है, वह लहर के बिना संभव नहीं है, वह लहर न तो योगी मोदी विरोधियों को दिख रहीं थी और न ही भक्तों को, क्यों? योगी मोदी विरोधियों को जो लहर दिख रही थी, वह अखिलेश यादव के पक्ष में थी और भक्तगण तो मजबूरी में रस्म अदायगी के तौर पर किसी तरह से भाजपा को जिता रहे थे, बेमन से। उनका विश्वास डिगा हुआ था। दिल उनका मानता नहीं था कि भाजपा जीतेगी। भाजपा की जीत के प्रति यही अविश्वास इन भक्तों को 2017 में था और वे दुखी मन से कहते थे नोटबंदी करके मोदिया ने सब गोड़ दिया है, ये विचार उस समय टिकट के दावेदारों और संगठन से जुड़े लोगों के भी थे। मैंने वर्ष 2017 में दावा किया था कि उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार बनाएगी जिस पर मेरी खिल्ली उड़ाई गई थी। उसी तरह इस बार भी मेरा यही मानना था कि भाजपा को पिछली बार से अधिक सीटें मिलेंगी क्योंकि पिछली बार मोदी अकेले थे और इस बार योगी का साथ होने के साथ ही इस डबल इंजन की सरकार के ढेर सारे काम भी जुड़े हैं, इसलिए पहले से ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए। लेकिन कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता के कारण करीब तीन से चार प्रतिशत वोट घर से बाहर नहीं निकले जिससे कुछ सीटें कम हो गई। घर से न निकलने वाले ये मतदाता भाजपा के पक्के समर्थक थे लेकिन सरकार बनने के आत्मविश्वास और कार्यकर्ताओं की अरुचि की वजह से वे आलस्य कर गए और भाजपा के कई विधायक हार गए।
कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता का कारण उनकी शासन में न सुनी जाना, विधायकों, मंत्रियों द्वारा उनको नजरंदाज करना तथा थानों में उनकी हनक न बनना था। उनको क्लेश इस बात का था कि अन्य दलों की सरकारों में उनका कार्यकर्ता जलवा फरोश रहता था, थानों तहसीलों पर उनका दबदबा रहता था लेकिन इस सरकार में कोई रौब नहीं बन पाया था, यहां तक कि कोई ट्रांसफर पोस्टिंग नहीं करा सकते थे। इस मामले में भाजपा सरकार ने असली समाजवाद ला दिया था, उनकी नज़र में उनका कार्यकर्ता भी आम आदमी ही था। इस उपेक्षा ने उसे मतदाताओं को मतदान स्थल तक लाने के प्रयास से रोक दिया। कार्यकर्ताओं के इस ठंडेपन की शिकायत सर्वोच्च स्तर पर की गई थी, जहां से जवाब मिला था कि पार्टी के लिए काम करिए लेकिन पार्टी से कोई उम्मीद मत करिए, आप किसी का ट्रांसफर तभी कराएगें, जब उसे नाराज़ होगें और किसी की पोस्टिंग तभी कराएगें जब उस से कुछ पक्षपात कराना होगा, भाजपा सरकार में यह नहीं चलेगा। सरकार सभी के लिए काम करेगी, चाहे वह समर्थक हो या विरोधी।
भाजपा की सरकार मायावती के समर्थन से ही बन पाएगी, ऐसा भी प्रचार किया गया था। मायावती की निष्क्रियता के बावजूद कई मंचों पर यह बात प्रचारित की गई थी कि बहन जी को हल्के में नहीं लेना चाहिए, वह इतनी सीटें लेकर के तो आराम से आ जाएंगी, जो सरकार बनाने में भाजपा को मदद करेगी। लोग यह भूल गए कि मायावती के अधिकतर समर्थक पहले ही भाजपा में आ चुके थे और जिन 15 करोड़ लोगों को कोरोना काल में पूड़ी सब्जी, गल्ला, गैस और नगद दो वर्षों से लगातार दिया जा रहा था, उनमें सबसे अधिक संख्या दलितों की ही थी और उन्होंने दिल खोलकर भाजपा के पक्ष में मतदान किया था। एक तरह से कहा जाए कि कार्यकर्ताओं की उदासीनता की वजह से भाजपा के जो वोट नहीं निकले, उनसे ज्यादा नए वोटर्स ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया जिनमें महिलाओं की संख्या अधिक थी जिन्हें गल्ला, गैस, नगद के अलावा अपराधियों से भी सुरक्षा मिली।

मोदी ने भाजपा के समर्थन में एक नया लाभार्थी वर्ग खड़ा कर दिया है जिसे अन्य दलों द्वारा अपनी तरफ खींच पाना असम्भव सा हो गया है।
मतगणना के एक दिन पूर्व उत्तर प्रदेश के कई धुरंधर राजनीतिज्ञों ने मेरे आकलन पर संदेह पैदा करते हुए कहा था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को दस सीट भी नहीं मिलेगी क्योंकि किसान आंदोलन और रालोद का सपा से गठबंधन भाजपा को बुरी तरह से पराजित करेगा। मेरा कहना था कि चोट तो पहुंचेगी भाजपा को लेकिन उससे बड़ी निराशा सपा गठबंधन को मिलेगी क्योंकि साल भर चला किसान आंदोलन सबसे बड़ा फुस्स पटाखा साबित होने वाला है और दूसरी तरफ सारे जाट सपा को वोट नहीं करेगें क्योंकि मुजफ्फर नगर दंगों के घाव अभी हरे हैं। परिणाम निकला तो भाजपा ने आगरा, मथुरा, गाजियाबाद और गौतम बुद्ध नगर जैसे कुछ जिलों में सभी सीटों पर जीत हासिल कर ली थी। गठबंधन को भी शामली और मुरादाबाद में शत-प्रतिशत जीत हासिल हुई और मुजफ्फरनगर और मेरठ में अच्छा प्रदर्शन किया।
वर्ष 2017 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 24 जिलों की 126 सीटों में से भाजपा ने 100 (लगभग 79%) सीटें जीती थीं जबकि इस बार उसका 85 पर रुक गया ( 67 %)। सपा और रालोद ने मिलकर क्षेत्र की 126 सीटों में से 41 (32%) पर जीत हासिल की। जयंत चौधरी की रालोद, जो 2017 में एक सीट ही पाई थी, इस बार 33 सीटों पर लड़ी और उनमें से आठ पर जीत हासिल की। इस तरह से भाजपा को मात्र 15 सीटों का नुकसान हुआ, इतने बड़े किसान आंदोलन और रालोद सपा गठबंधन के बावजूद! यही नहीं, भाजपा आगरा, मथुरा, अलीगढ़, बुलंदशहर, गाजियाबाद और गौतम बुद्ध नगर जैसे जिलों में पूरी तरह से जीत हासिल करने में सफल रही।
असल में मतदाताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में अपना पूर्ण विश्वास जताया। राज्य में विकास हुआ, 2017 से पहले की तुलना में कानून-व्यवस्था में काफी सुधार हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी की केंद्रीय योजनाएं और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की योजनाएं प्रभावी ढंग से लोगों तक पहुंचीं। दोनों ने व्यक्तिगत रुचि लेकर योजनाओं का क्रियान्वयन कराया तभी लोगों ने उनको वोट दिया।
उत्तर प्रदेश में माफियाओं की नकेल कसने, बेहतर कानून व्यवस्था की धारणा, मुफ्त राशन का वितरण, पेंशन और भत्तों का सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में अंतरण, भाजपा के पक्ष में काम किया जबकि बेरोजगारी, मुद्रास्फीति और जाति समीकरण जैसे अन्य मुद्दों को अधिकतर मतदाताओं ने नकार दिया। विश्लेषक कहते थे कि उत्तर प्रदेश में एम वाई समीकरण ही जीतेगा, सच में ऐसा हुआ भी। उत्तर प्रदेश में एम वाई M Y समीकरण ही जीता लेकिन मुसलमान और यादव वाला नहीं, उसकी जगह मोदी और योगी वाला। मुसलमानों ने सपा को पिछले चुनाव से भी ज्यादा वोट दिए 46% से 79% तक और यादवों ने भी 68% से 83% तक लेकिन फिर भी भाजपा ने अन्य जातियों को अपनी तरफ करने में सफलता प्राप्त कर इस जातिवाद के परखच्चे उड़ा दिए।
सवाल यह उठता है कि पत्रकारों को ये सब बदलाव क्यों नहीं दिखे, खासकर दिल्ली के पत्रकारों को? इसके दो कारण हैं। एक तो पत्रकार जमीन से जुड़े नहीं रह गए हैं। वे भी दलों में बंट चुके हैं। वे भी मुंहदेखी बात ही करते हैं। भाजपा शासन में पत्रकारों को अधिक तरजीह नहीं दी गई, ट्रांसफर पोस्टिंग की दुकानें बंद कर दी गईं, विज्ञापन भी कम मिले, नकेल कसने की भी कोशिश की गई जिससे उनमें सत्ता विरोधी लहर सी आ गई। दूसरी तरफ जो भक्त पत्रकार थे, वे खुलकर मैदान में नहीं आ पाए। उन्हें खुद ही भाजपा की जीत पर संदेह था और अखिलेश की सरकार आने पर प्रताड़ित होने का भय था, इसलिए उन्होंने भी सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया। वैसे भी ज़मीन से जुड़े न होने के कारण वे स्वयं में इतने सक्षम भी नहीं थे कि सही आकलन कर सकते। वैसे अखिलेश यादव को अपने उन भक्त पत्रकारों को बुलाकर जरूर पूछना चाहिए कि जो लहर उन्हें दिखाई दे रही थी, वह कहां गईं?
ऐसा नहीं है कि पत्रकारों के आकलन हमेशा सही होते हैं। जब उसमें भावना जुड़ जाती है तो आकलन अक्सर गलत हो जाते हैं।  असल में हमारे देश में यह परंपरा रही है कि जो मेहनत करके पास हो, उसे हिकारत की नज़र से देखो और जो तिकड़म करके, नकल करके, धोखा देकर कुछ हासिल करे, उसकी तरफ प्रशंसा की दृष्टि से देखो। मोदी ने यह धारणा तोड़ने की सफल कोशिश की है और जहां कुछ साल पहले उम्मीदवारों द्वारा वोट के ठेकेदारों को पैसे बांटकर, शराब पिलाकर वोट हासिल किया जाता था, वहां पर लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाएं लाकर उनके दिल में जगह बनाई जा सकती है, इसके बारे में  कोई सोच भी नहीं सकता था। क्योंकि वंचितों के कल्याण के बारे में सोच कर उसका लाभ उन तक पहुंचा पाने के लिए जिस सोच और ऊर्जा की जरूरत होती है, वह कोई खर्च नहीं करना चाहता था क्योंकि राजनीति में “अपने और अपनों” के लिए ही आए हैं, देश भर के भुक्खड़ों के लिए नहीं, यही दुर्भावना रहती थी सबकी। मोदी और योगी ने स्वयं को इस दुर्भावना से दूर रखा है और ऐसी ही अपेक्षा वह सभी राजनीतिज्ञों से करते हैं। यही वजह है कि उन्हीं की पार्टी के लोग उनसे दुखी रहते हैं। अभी हाल में जिस तरह से उन्होंने सांसदों के पुत्रों को टिकट नहीं दिए, उसका संदेश यह गया कि मोदी राज में पुराने खानदानी राजनीतिज्ञों का कोई भविष्य नहीं है। मोदी वंशवाद और परिवारवाद के विरोधी हैं। हर राजनीतिज्ञ अपने परिवार के सदस्यों को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी बनाना चाहता है लेकिन मोदी के सामने दाल नहीं गलती तो वे भाग कर अखिलेश यादव की पार्टी में चले जाते हैं जहां ऐसे लोगों के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं। इस तरह से मोदी एक नई तरह की राजनैतिक इबारत लिखने की कोशिश कर रहे हैं जिसके बारे में कल्पना तो की जाती थी लेकिन इस कल्पना को ज़मीन पर उतरने का साहस किसी के पास नहीं था। मोदी इसने इसलिए सफ़ल हो रहे हैं क्योंकि वह अपनी कार्य शैली से जनता को यह समझाने में और उनका विश्वास जीतने में सफल हो गए हैं कि उनकी नीयत साफ है और वे हमेशा जनहित व राष्ट्रहित में ही सोचते हैं।

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की स्थिति ऐसी हो गई थी कि जैसे वह रणबांकुरों से घिर गए हों और खुद निहत्थे भी हैं लेकिन दोनों हाथों से अपना बचाव करने के साथ मौका मिलने पर वार भी कर रहे हैं। जबकि ऐसा था नहीं। अखिलेश यादव ने कुछ महीने पहले ही चुनावी समर में प्रवेश किया था लेकिन मायावती की निष्क्रियता और कांग्रेस की शून्यता की वजह से वह इकलौते विपक्ष के रूप में उभरे थे और विशाल यादव वर्ग के गारेंटेड वोट बैंक के साथ सम्पूर्ण मुस्लिम वर्ग का साथ भी उन्हें मिल गया था। हालांकि दोनों ही वर्ग पिछले चुनावों में भी उनके साथ ही रहा था लेकिन इस बार अति सक्रिय होकर वह सपा से जुड़ा था। अखिलेश इसे भाजपा के खिलाफ यादवों और मुस्लिमों की प्रतिष्ठा की लड़ाई बनाने में सफल हुए थे। इसके लिए उनके प्रवक्ताओं व समर्थकों द्वारा जिस तरह की भाषा बोली जा रही थी, उससे भाजपा यह संदेश देने में कामयाब हो गई थी कि यह चुनाव शरीफ हिंदुओं की अस्मिता का सवाल बन गया है। मेरा मानना है कि अखिलेश यादव अगर सौम्यता की मूर्ति बनकर चुनाव लड़े होते तो उन्हें कुछ ज्यादा ही वोट मिले होते जो भाजपा से तो नाराज़ था लेकिन फिर भी भाजपा को हराने के लिए घर से नहीं निकला था। अखिलेश युवा हैं, आकर्षक हैं, मुख्यमंत्री रह चुके हैं, संपन्न हैं, बस लोगों के दिलों में जगह बनाने की जरूरत है और वह भी तब जब सामने “मोदी योगी” जैसी महाबली जोड़ी मौजूद हो जो राजनीति और जन सेवा की पुरानी इबारतें मिटाकर नई इबारत लिखने का जोखिम उठाने को तैयार हो।
सपा के रूप में उत्तर प्रदेश में अब इकलौता विपक्ष बचा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका हश्र भी कांग्रेस की तरह न हो जाए। मेरा मानना है कि अखिलेश को इस बार अपेक्षा से अधिक सीटें मिल गईं हैं, क्योंकि समाज में प्रभाव डालने वाले काफी लोगों ने मान लिया था कि “अखिलेश वापस आ रहे हैं”, अगर यह टेंपो बना रहेगा तो उसी में सपा की ख़ैर है। कई ऐसी सीटें हैं जहां बहुत कम अंतर से अखिलेश हारे। हार की वजह ओवैसी की पार्टी से प्रत्याशी का खड़ा होना था। साफ है कि जो मुस्लिम बाहुल्य सीटें हैं, अगर वहां पर मुस्लिमों के वोट का विभाजन नहीं हो पाता है तो वे सीटें अखिलेश को ही मिलेगी। यानी भविष्य में ये सीटें भाजपा के हाथ से निकल जाएंगी। यानी अखिलेश का भविष्य काफी उज्ज्वल है।
अखिलेश यादव की भी समझ में आ गया है कि अब मतदाता अपने वोट की कीमत चाहता है और सरकार में आए बिना मतदाता को लुभा पाना मुश्किल है। अगर भाजपा कोई काम नहीं करती है तो मतदाता उसका विकल्प ढूंढने लगेगें। फिलहाल सपा की सबसे बड़ी थाती यादव और मुस्लिम वोट बैंक ही है। मुस्लिमों को कोई और विकल्प मिल जाने पर सपा भी बसपा की राह पर चल निकलेगी। देखना यह है कि अखिलेश मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में कब तक के लिए रोक पाते हैं। इस बार तो ओवैसी नाकामयाब हो गए, लेकिन उनकी थोड़ी सी भी सफलता सपा को भारी पड़ेगी। अगर अखिलेश यादव अपने पिता की तर्ज़ पर अधिक समय उत्तर प्रदेश को दे पाते हैं तो भविष्य में वह अपने को भाजपा के सामने चट्टान की तरह खड़ा पाएंगे और दूसरी तरफ भाजपा को भी अब मतदाताओं को अपने पाले में रोके रखने के लिए कुछ और तरकीब  निकालनी पड़ेगी। 2024 का लोकसभा का चुनाव अखिलेश यादव को 2027 के विधानसभा के चुनाव लिए नेट प्रैक्टिस का खूब मौका देगा, बशर्ते अखिलेश लड़कपन छोड़कर अपनी संजीदा छवि बना सकें और “द कश्मीर फाइल” की तरह “लखीमपुर फाइल भी बनेगी” जैसे हल्के बयानों से खुद को बचा सकें। उन्हें अपने प्रवक्ताओं के  चयन पर भी विशेष ध्यान देना होग।